Monday, March 19, 2007

कटे न रैन

कटे न रैन
मेरे दिल बता तुझे कहाँ मिलेगा चैन
कटे ना रैन

जब चाँद गहरी झील के, उस थरथराते जिस्म पर
चाँदी की चुनरी बुन गया, ऐसा लगा सब थम गया
ये जिन्दगी फिर से मुझे अब रास क्यों आने लगी
यूँ दूर होते हुए भी तू पास क्यों आने लगी

उस ख्वाब के टुकड़े से जी भर खेलकर भी, थके न नैन
कटे न रैन

मेरे दिल बता तुझे कहाँ मिलेगा चैन
कटे न रैन

© Kamlesh Pandey 'शजर'

पिया अब तो मिल

पिया अब तो मिल
आ के साहिलों पर

मिले रात दिन
खिले रंग बिखरकर
पिया अब तो मिल
आ के साहिलों पर

सागरों की नीलगू गहराइयाँ भी पाट दी
इतनी नदी मैंने उड़ेली रात तेरी याद की

बहका समन्दर
भर आया दिल
पिया अब तो मिल
आ के साहिलों पर

नक्श-ए-पा तेरा सजा लूँ रेत पर इक घर बना लूँ
वक्त की लहरों से खेलूँ सीप से मोती चुरा लूँ

प्यार उमड़े ज्वार बनकर
डूबे दिल
पिया अब तो मिल
आ के साहिलों पर

सुर्ख़ रंग भी शाम के फीके पड़े तेरे बिना
देखकर कुछ रंग आये हाथ की तेरे हिना

आती सँवरकर
तारों की महिफ़ल
पिया अब तो मिल
आ के साहिलों पर

अब तो मिल
पिया अब तो मिल
मिल अब तो तट पर समन्दरों के

पिया अब तो मिल आ के साहिलों पर

© Kamlesh Pandey 'शजर'

आ पास आ

आ पास आ
तू इक कदम आगे बढ़ा उस राह पर
जिसमें बन्धन नहीं है चाह पर
नजदीकियों के दायरों को मिटा
आ तू पास आ

आ पास आ
अहसास की आँधी उठा
कि खुल सकें दिल के झरोखे
काँप जाये रूह परदे की तरह
खुशबू हमारे प्यार की
सांसों में भर जाये
भरे खुमार सा दिल में
जरा धड़कन ठहर जाये

आ पास आकर लगा दे
तपती अगन इक चाह की
सब जला दे
परवाह सारी भुला दे
आ इश्क को गवाह कर
आ फिर मुझे तबाह कर
गुमराह कर

आ पास आ

© Kamlesh Pandey 'शजर'

नीली झील

एक नीली झील में नौका डुबा मैं सो गया
तन था तेरे आगोश में मन खो गया

वो तेरा संसर्ग था या स्वर्ग था?

महसूस की मैंने तुम्हारी सांस की पुरवाइयों में आँच सी
सच सच बता क्या प्यास थी
जो उफनकर ज्वालामुखी सी
चूमने मुझको उठी थी
आग सी?

मैं हिममनुष सा गल गया
जजबात के उस सुलगते तूफ़ान से था व्यर्थ बस संघर्ष
मैं पिघल गया
पत्थर का सीना फाड़कर ज्यों स्रोत को बह गया
इक किला था बस ढह गया

तुममें कहीं गहरे छुपे उन मोतियों की चाह में
गोते लगाता रहा
नीली झील के
हर श्वास में उच्छवास में तुममें समाता रहा

वो तेरा संसर्ग था या स्वर्ग था?

© Kamlesh Pandey 'शजर'

Monday, March 12, 2007

तुम मिले

ये जो गीत थे
खोए हुए
लफ़्ज़ों के जंगल में कहीं

कोई पास से गुज़रे कभी
तो समेट ले

हाँ इन्हें भी इंतज़ार था
कोई पंक्तियों में गूँथ दे
कोई इनको तर्ज़ में ढाल दे
कोई गुनगुना तो दे ज़रा

मैं भी बहुत भटका मगर

कभी रास्ते में मिले नहीं
मेरे रास्ते सेहराओं की वीरानियों में खो गये
जो दर्द थे
थक हार के बेख्वाब नींद में सो गये

फिर तुम मिले तो जाने मैं
किसी ऐसे मोड़ से मुड़ गया
कि जिधर नज़र का रुख़ करूँ
मेरे सामने इक गीत है

इन्हें देख कर
समेटकर
मुझे इस तरह लगने लगा
मैं भी तो खोया गीत था
लोगों के जंगल में कहीं
बिसरा हुआ
बिखरा हुआ
कोई पास से गुज़रे कभी
तो समेट ले
हाँ मुझे भी इंतज़ार था
कोई पंक्तियों में गूँथ दे
कोई गुनगुना तो दे ज़रा
कोई मुझको तर्ज़ में ढाल दे

फिर तुम मिले

© Kamlesh Pandey 'शजर'

Sunday, March 11, 2007

आपने ऐसे निहारा

आपने ऐसे निहारा

दिल के कोरे कागजों पर
चित्र सुन्दर खींचकर मैं,
सोचता हूँ आपका है? या कि मेरा? या हमारा?

आपने ऐसे निहारा

आपके
आँचल की उन
नीलाभ सी परछाइयों में
खिल गयी है पसीने की बूँद भी,
जैसे निशा की लटों से हो खेलता को सितारा

आपने ऐसे निहारा

आपकी मुस्कान
मेरी जिन्दगी में
इस तरह से खिल गयी है,
मरुस्थल की किसी बंजर राह में ज्यों फूल प्यारा

आपने ऐसे निहारा

ढालने बैठा था
सब कुछ गीत में,
जो मौन रहकर भी तुम्हारी आँख मुझसे बोलती है,
पर लगा यों शब्द की सीमा परे ज्यों चल रहा हो खेल सारा

आपने ऐसे निहारा

© Kamlesh Pandey 'शजर'

मुझे छू गया झौंका कोई

मुझे छू गया
झौंका कोई
शम्मा की लौ सी
थरथरा गयी हूँ मैं

सिमटने लगी
तनहाइयों की
काली अँधेरी खामोश चादर

मुझे यूँ लगा
ज्यों हो उगा
पूनम का चाँद, बेवक्त ही

ज्यों खनक उठा
कोई भीना साज, बेरब्त ही

तेरे प्यार का आगोश पाकर
थरथरा गयी हूँ मैं

मुझे छू गया
झौंका कोई
शम्मा की लौ सी
थरथरा गयी हूँ मैं


मेरी
कल्पना को
दो पंख दो
इक रात ही
दिल की गिरह को खोल दो
इक बात ही
झूठी सही, मुझे बोल दो

मुझे चूम लो
मेरे जिस्म के
हर रोम को
उन बिजलियों से, छू लो जरा
उन्हीं उंगलियों से
जिनका नरम स्पर्ष पाकर
थरथरा गयी हूँ मैं

मुझे छू गया
झौंका कोई
शम्मा की लौ सी
थरथरा गयी हूँ मैं

खेल खेल में

अन्जाने में ही
कोई बावरी सी
नजर उड़ते उड़ते
ठिठक जाये कहीं

बरसों से दिल को
सभाँला हुआ था
यूँ ही खेल में वो
छिटक जाये कहीं

मुझे क्या हुआ है
कि ऐसा लगा है
कोई राह चलते
भटक जाये कहीं

मेरी धड़कनों को
कोई सँभालो
जरा धीरे शीशा
चटक जाये कहीं

मेरे पर न खोलो
मुझे डर है झौंका
कोई मनचला सा
पटक जाये कहीं


© Kamlesh Pandey 'शजर'

रात रहने दो

किसने बता
देखी सुबह
रात रहने दो
आज रहने दो

फूलों पे वो
शबनम जड़ा
ताज रहने दो
आज रहने दो

ख़ामोशियाँ
ये कह रही
साज रहने दो
आज रहने दो

सच की जुबाँ
कड़वी न हो
स्वाद रहने दो
आज रहने दो

मूँद लो पलक
नजर कह न दे
राज रहने दो
आज रहने दो

बात चल पड़ी
बन ही जायेगी
बात रहने दो
आज रहने दो

सोए रहो
खोए रहो
रात है हसीं
रात रहने दो

किसने बता
देखी सुबह
रात रहने दो
आज रहने दो

यकीन कम है समन्दरों पे

यकीन कम है समन्दरों पे

मैं फिर घरोंदे बना रहा हूँ
पता हैं लहरों के सब इरादे, मैं फिर भी जोखिम उठा रहा हूँ

मैं खारे पानी से खेलता हूँ
हयात-ए-फानी से खेलता हूँ
हबाब बन मौज में सँवरती, मैं उस रवानी से खेलता हूँ

उबर के मैं बार बार डूबा
मैं डूब कर उबरता रहा हूँ

यकीन कम है समन्दरों पे


© Kamlesh Pandey 'शजर'

अब क्या कहूँ

दिल की सतह पर छा गए
जब दर्द के बादल घुमड़,
इक ज्वार सा जजबात का
जब अचानक आया उमड़,
फिर भी न अश्क जो ढल सका,
मेरी आँख से ना निकल सका,
शबनम का क़तरा फूल पर
जम जाए ओले की तरह,
हुई आँख जब ये दहक कर
के लाल शोले की तरह,
फिर भी न वो जो पिघल सका,
जो न जल सका, न निकल सका,
वो आज तेरे सामने बिन बात यूँ ही बह गया,
पूरी कहानी कह गया,

अब क्या कहूँ क्या रह गया,

सागर की रेती की चुभन
को मौन रह कर झेलती,
सीपी सी मेरी आँख
टूटे ख्वाब से थी खेलती,
और वक्त के साँचे मे यों
मोती ये कैसा ढल गया,
मेरी उम्र भर की तलाश का,
तेरी प्रीत के अहसास का,
तेरी गमर् बाहों के पाश में
तेरे गेसुओं के सुवास में,
किसी कांपती हुई डाल से
झरे फूल जैसै पलाश का,
वो बूँद था पर यूँ लगा ज्यों बाँध कोई ढह गया,
तेरी आँख भी नम कर गया,

अब क्या कहूँ क्या रह गया।

ओ स्वप्न मेरे

ओ स्वप्न मेरे

मेरे दिल की जमीन बन जा
मुराद था अब यकीन बन जा
कि उम्र शबनम की बर्ग-ए-गुल पर, हसीन है पर बहुत ही कम है
कि तेरी लौ पर तो है भरोसा, इन आँधियों पर यकीन कम है।
पलक से झर जा
रगों में भर जा

ओ स्वप्न मेरे।

शहर की वीरान उदासियों में
लगे जो खुशियों के चंद मेले
तमाम खुशियों को बेच कर मैं, कसक ज़रा सी ख़रीद लाया
बचा बचा के जो खचर्ता था तो उम्र इतनी मैं काट पाया
उधार दे जा कसक जरा सी

ओ स्वप्न मेरे।


© Kamlesh Pandey 'शजर'

गजल कहूँ या रूबाई तुझको

गजल कहूँ या रूबाई तुझको

कि मेरे सीने का दर्द जैसे, लफ्ज़ बनकर के ढल गया हो
कि मेरी नजरों का ख्वाब जैसे अश्क बनकर पिघल गया हो
कि तेरी हसरत की आग जलकर के राख में सब बदल गया हो
मैं सोचता हूँ कि है बचा क्या सिवा तुम्हारे ख़याल के अब

मैं सोचता हूँ कि हसरत-ए-दिल
मेरी कहूँ या पराई तुझको

गजल कहूँ या रूबाई तुझको


© Kamlesh Pandey 'शजर'

रेत पर लिखकर

रेत पर लिखकर
तुम्हारा नाम मैंने उँगलियों से
कहा बढ़ते समन्दर से

"मिटा सकते हो?
मिटा दो!
किन्तु इतना याद रखना
ये महज प्रतिबम्ब है
उन अक्षरों का
जो कि अंकित हैं हृदय में"

समन्दर को भी समझ थी
पास आया
नाम को तेरे भिगाया
और वापस हो लिया

मैंने हथेली से किया महसूस गीले अक्षरों को
रो दिया
© Kamlesh Pandey 'शजर'

यूँ छेड़ कर

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं विवश सा गुनगुनाता रहा
सारी रात
उस छूटे हुए टूटे हुए सुर को
सुनहरी पंक्तियों के वस्त्र पहनाता रहा
गाता रहा

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
कि मैं मनस की दीवारों पर चित्र भर
ले कल्पना की तूलिका
और भाव के उजले बसंती रंग भरता रहा
जैसे स्वप्न से मिलने को आतुर

यूँ छेड़ कर धुन कोई सुमधुर रुक गया
मैं समय की मुक्तावली को रख परे
उन्माद नयनों में भरे
विस्तीर्ण नभ से धरा तक ढूँढा किया
ध्वनिश्रोत
खोया थिरकते पग का नुपुर

यूँ छेड़ कर धुन कोई
© Kamlesh Pandey 'शजर'

सोचा है आज


सोचा है आज
कह दूं मैं बात
छुप ना सकेगा
मुझसे ये राज
खुले ना खुले मेरी ज़ुबान
नज़रे तो कर ही देंगी बयान
सारी की सारी जब दास्तान
तो फ़र्क़ क्या
कल हो की आज
सोचा है आज
कह दूं मैं बात


© Kamlesh Pandey 'शजर'

कामयाब


लो
टूट कर मैं
चूर होकर
मिल गया शराब में


शीशे की किस्मत और क्या
लो हो गया
कामयाब मैं

© Kamlesh Pandey 'शजर'

अहसास

किसी उम्मीद के साये
बिना देखे
बिना जाने
लगा आये
दिल

तुम
पहेली हो कोई
अनबूझ सी
अपने में ही
खोई हुई
स्वप्निल

मेरी हर रात है तेरे
ख़याल से
ख़्वाबों के

सितारों से
झिलमिल

बता
क्या नाम दूँ
उस अहसास को
उस ख्वाब को
जिसमें है तू
शामिल


अगर तुम
हमराह हो
फिर क्या मुझे
परवाह हो
मिले ना मिले
मंज़िल

मुझे
अब बस यही
है आरज़ू
है जुस्तजू
हो जाये तू
हासिल

कहानी को मेरी
अन्जाम दे
दे दे जहर
या जाम दे
आराम दे
काटिल



© Kamlesh Pandey 'शजर'