Monday, March 19, 2007

नीली झील

एक नीली झील में नौका डुबा मैं सो गया
तन था तेरे आगोश में मन खो गया

वो तेरा संसर्ग था या स्वर्ग था?

महसूस की मैंने तुम्हारी सांस की पुरवाइयों में आँच सी
सच सच बता क्या प्यास थी
जो उफनकर ज्वालामुखी सी
चूमने मुझको उठी थी
आग सी?

मैं हिममनुष सा गल गया
जजबात के उस सुलगते तूफ़ान से था व्यर्थ बस संघर्ष
मैं पिघल गया
पत्थर का सीना फाड़कर ज्यों स्रोत को बह गया
इक किला था बस ढह गया

तुममें कहीं गहरे छुपे उन मोतियों की चाह में
गोते लगाता रहा
नीली झील के
हर श्वास में उच्छवास में तुममें समाता रहा

वो तेरा संसर्ग था या स्वर्ग था?

© Kamlesh Pandey 'शजर'

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