ये जो गीत थे
खोए हुए
लफ़्ज़ों के जंगल में कहीं
खोए हुए
लफ़्ज़ों के जंगल में कहीं
कोई पास से गुज़रे कभी
तो समेट ले
हाँ इन्हें भी इंतज़ार था
कोई पंक्तियों में गूँथ दे
कोई इनको तर्ज़ में ढाल दे
कोई गुनगुना तो दे ज़रा
मैं भी बहुत भटका मगर
कभी रास्ते में मिले नहीं
मेरे रास्ते सेहराओं की वीरानियों में खो गये
जो दर्द थे
थक हार के बेख्वाब नींद में सो गये
फिर तुम मिले तो जाने मैं
किसी ऐसे मोड़ से मुड़ गया
कि जिधर नज़र का रुख़ करूँ
मेरे सामने इक गीत है
इन्हें देख कर
समेटकर
मुझे इस तरह लगने लगा
मैं भी तो खोया गीत था
लोगों के जंगल में कहीं
बिसरा हुआ
बिखरा हुआ
कोई पास से गुज़रे कभी
तो समेट ले
हाँ मुझे भी इंतज़ार था
कोई पंक्तियों में गूँथ दे
कोई गुनगुना तो दे ज़रा
कोई मुझको तर्ज़ में ढाल दे
फिर तुम मिले
© Kamlesh Pandey 'शजर'
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